Friday, June 12, 2009

बगीचों की रचना...

मैंने बनाये बगीचों में चंद बगीचों की तस्वीरें...दरअसल इन तस्वीरोंको इस्तेमाल कर मैंने मेरे "फाइबर आर्ट" के तकनीकसे भित्ति चित्र बनायें हैं...

Parts of some of my prize winning landscapes waiting to be converted into embroideries.


कई घरों की सज्जा या बगीचों की रचनाएँ की हैं...मेरा हमेशा आग्रह रहता था,की, घरों या बगीचों में, वही इस्तेमाल किया जाय, जिसका रख रखाव आसान हो...हम जब चाहेँ, तब उसे एक नया रूप दे सकें...
कई बार लोग चाहते हैं,कि, हरियाली और गुलाब, दोनों होनउनके अलावा बगीचा भी क्या......जबकि, इन दोनों को भरपूर धूप अत्यावश्यक होती है..इसके अलावा इनकी देख भाल आसान काम नही...

गुलाबों पे रोग बड़े जल्द आते हैं..ख़ास कर हाइब्रिड गुलाबों पे,तथा पूरे बगीचेमे फैलते हैं...जैसेकि "मीली बग".....इसका कोष,सफ़ेद,रूई के छोटे गुच्छे जैसा दिखता है...कीडा उस कोषमे छुपा बैठता है..और हैरानीकी बात तो ये,कि, जो पत्ते हमारे सरसे ऊपर होते हैं, वहाँ ये कीडा पत्ती के ऊपरी हिस्से पे अपना कोष बना लेता है...जो पत्ते हमारी आँखों से नीचे होते हैं, उनके पीछे इनका कोष मिलता है...तने पे गर हल्की-सी भी खाल उतरी हो,तो उसमे घुस के खूब पलते हैं...!
रोज़ाना, सुबह शाम इन कीडों पे नज़र रखना ज़रूरी होता है...
कोष को ब्रश से हटा भी दें, फिरभी, राई से भी छोटा कीडा उडके कहीँ और छुप लेता है ! तोडे हुए हर पत्ते को हमेशा किसी थैली में डाल के उसका मुँह बंद कर लेना चाहिए..वरना थैली मे से उडके ये फिर अपना जाल फैलाते हैं..!
हरियाली का रख रखाव भी इसी तरह कठिन होता है..जंगली घाँस रोज़ाना निकलनी पड़ती है...मेरा अपना मानना है, कि, बगीचेमे अधिक से अधिक " texture" हो...नदीमे मिलने वाले सफ़ेद गोल पत्थर( सबसे ऊपरी तस्वीर मे नज़र आते हैं)या संगे मरमर का चूरा,( जहाँ फर्श बिकता है, वहाँ मिल जाता है), ईंट- पत्थर...अलग अलग किस्म की "ornamental"घाँस...मिसाल की तौरपे pampas ग्रास ,( ऊपरी तस्वीर मे नज़र आ रही है..इसपे लंबे, पतले, पतले, भुट्टे नुमा फूल हैं) , bamboo ग्रास ,colius, तथा, कई, ऐसे पौधे, जिनपे फूल नाभी, आयें, लेकिन, भिन्न भिन्न रंगों के कारन, बगीचा आकर्षक बना देते हैं...रिबन ग्रास (इसके भी कई प्रकार उपलब्ध हैं, spider प्लांट, (ये पर्यावरण का प्रदूषण सोख लेता है)। गर "गूगल सर्च" मे' ornamental grass' टाइप करें,तो अनगिनत प्रकार मिल जायेंगे..!
colius के ऊपर फूल आतेही,उसे तोड़ देना चाहिए, वरना पौधा मर जाता है। इसकी छोटी-सी ( ४/५ इंचों की लम्बाई)टहनी काट के मिटते मे लगा देनेसे ये पौधा जड़ें पकड़ लेता है। इसमे सैकड़ों रंग उपलब्ध होते हैं।
सबसे आखरी तस्वीर मे "ipomia "( sweet patato) कुटीर की ओर जानेवाले, टेढ़े मेढे रस्ते पे लगी हुई है...इसमे भी २ प्रकार के रंग होते हैं, एक तो हरा, जो नज़र आ रहा है, और दूसरा, जामुनी। इसकी छोटी-सी टहनी मिट्टी मे लगा देनेसे ये "ग्राउंड कवर" बढ़ जाती है। हर चंद हफ्तों मे इसे उखडा जाय , तो नीचे शकर कंद मिल जाता है। ये ज़मीनपे फैलती है...इसे बेल की तरह चढ़ा नही सकते, नाही गमलों मे लग सकती है, लेकिन बढ़ती बड़ी तेज़ीसे है ! बगीचेमे जल्द हरियाली नज़र आनेकी चाहत हो,तो, इससे बढ़के दूजा पर्याय नही...!

( "पत्ती " ये शब्द टाइप करते समय मुझसे बड़ी मज़ेदार गलती होती गयी...अपनी माँ को पढ़के सुनाया तो,वो हँस-हँस के लोटपोट हो गयीं...पत्ती की जगह, मुझसे "पती" टाइप होता गया...! अच्छा हुआ, जो इस वर्तनी पे मेरा ध्यान गया,वरना मेरे पाठक.....चलिए, छोडिये...उनपे क्या असर होता ,इसकी केवल कल्पना कर रही हूँ!)
उपरसे २ री तस्वीर मे, आपको तालाबों मे या जहाँ,जहाँ, बरसात का पानी इकट्ठा होता है, ऐसी जगहों पे उगनेवाली घाँस नज़र आ रही है।ये "राम बाण" नाम से जानी जाती है।
इसी परसे 'राम बाण उपाय" शब्द हुआ.....
इसके ऊपर भी भुट्टे लगते हैं। जब ये भुट्टे फटते है, तो इनमेसे रूई जैसे बीज/तिनके उड़ते हैं। इन फटे हुए भुट्टों को इकठ्ठा कर बोतल बंद करके रखा जा सकता है। गहरे घाव पे इसे ठूँस के लगा दिया जाय तो रक्त स्र्ताव तुंरत बंद हो जाता है। ख़ास कर खेतों मे काम करने वाले मज़दूर के पैर पे गर कुल्हाडी का घाव लग जाय तो डॉक्टर के पास ले जाने के पूर्व इसे ज़ख्म मे भर देना चाहिए। बेहतरीन first aid है !आज़माया हुआ भी !
इसी तस्वीर मे एक सुराही दार मटका नज़र आ रहा है..जिसे मैंने pond मे रामबाण के साथ रखा था...वहीएँ पे एक गड्ढा बनके, बिजली का पम्प रख दिया था...( जो वैसे ही पड़ा हुआ था). उसके ज़रिये, पानी उछलके मटके के मुँह से वापस pond मे छलकता...। fabricate किए हुए, पत्थर नुमा लैंप भी लगाये थे..
इन सभी का स्विच बोर्ड , एक बर्ड हाउस बनवाके, उसमे लगा लिया था। ( ओपरसे ३ रे क्रमांक की तस्वीर).

ये रचना, महाराष्ट्र पुलिस अकादमी के बगीचे का एक हिस्सा थी। लंबा ड्राइव वे था, और इस गोलाकार रचनाकी बाईं ओरसे निकल, सीधे अकादमी के महानिदेशक के, बंगले के पोर्च में जाता...गाडी घूमके इसी रचना की दाहिनी ओरसे बाहर निकल पड़ती....

उपरोक्त चित्र में जो दोमंज़िला मकान दिख रहा है, वही महानिदेशक का निवास स्थान है।
१९९३ में National Police science Congress, का यजमान पद, इस अकादमी ने संभाला था...पूरे परिसर का उस समय landscaping करनेका भार मैंने संभाला था।
इन्हीं तस्वीरों में जो एक लकडी की पुलया नज़र आ रही है, वोभी अकादमी निवास के बगीचेका विस्तार है...यहाँ भी एक pond बनाके उसमे, कँवल तथा राम बाण के पौधों को उगाया था...रामबाण को गमलों में लगा के pond में रख लिया था...
पूरे परिसर में, दरख्तों की टहनियों पे मैंने मिट्टी के मटके उल्टे लटका लिए थे तथा उनमे बल्ब लगा लिए थे..एक सूक्ष्म छेद कर,उसमे बिजली की तार लगाई गयी थी...सैंकडों पुराने बरगद के पेडों से घिरी इस प्रशाला को रौशन करने का सबसे सस्ता और आसान तरीका यही था...
उस समय पूरे भारत के आला पुलिस अफसर तो थेही...अलावा इसके, कई अपने अपने क्षेत्र में जानी मानी हस्तियाँ मौजूद थीं..
उन्हीं में से एक थे, जग प्रसिद्ध व्यंग चित्रकार, श्री R. K. Laxman...
Laxman उन व्यक्तियों मेसे एक हैं, जो, बेझिझक , कोई आयोजन या चीज़ अच्छी न लगे तो, मुँह पे कह देते हैं !
उनकी पैनी नज़र का क्या कहना! उन्हें पूरे परिसर की रचनात्मक बागवानी बेहद पसंद आयी
थी...और मेरे लिए, उन पती पत्नी का हमारे घर आना एक गज़ब यादगार ! तबसे हमारे पारिवारिक संबंध बन गए..

काफी विषयांतर हो गया...कहनेका मतलब इतना था,कि, बगीचे की रचना ,गर कल्पना शक्ती से की जाय, तो कम खर्च तथा समय मे बेहतरीन बागवानी हो सकती है...सम्पूर्ण अकादमी का परिसर, और १०० से अधिक पुरानी पुलिस मेस और बंगले का अंतर्बाह्य काया पलट करनेके लिए, मुझे सिर्फ़ एक हफ्ता मिला था...! मेस के लिए फर्नीचर आदी की खरीद फरोख्त मुझे पुणे आके करनी पडी थी...लेकिन अकादमी मे जो प्रसिक्षण ले रहे अफसरान थे, उनके बिना ये हासिल नही था...
अकादमी का जो जिम था, उसीको कांफ्रेंस हॉल बनाया गया था, और मध्य मे इस तरह गमले रचाए थे, कि, बगीचे मे बैठने का आभास होता...छत के ऊँचाई, अंदरसे शामियाना डाल, कम कर दी गयी थी...

( first aid का तरीका है...गर तीक्ष्ण घाव हो तो,उसमे कपास जलाके भर देनी चाहिए। दवाई के दुकानों मे जो surgical cotton मिलती है, उसके टुकडों को सीधे , चिमटे मे पकड़ गैस पे जला लें, और घाव मे भर दें। डॉक्टर के पास पोहोंचने से पूर्व ये बेहद अच्छा उपाय है। अनावश्यक खून बेहनेसे रोका जा सकता है। जला लेनेसे कपास, निर्जन्तुक होही जाती है।)





अलग, अलग शेहरोंमे के तबादलों के समय, मैंने बनाये कुछ बगीचे...जिन्हें कढाई मे तब्दील करनेके लिए रुकी हूँ...कई तो कर चुकी हूँ...दुर्भाग्यवश उनकी तस्वीरें नही निकालीं....

Friday, June 5, 2009

आ गयीं..बरखा रानी!!

कलही बरखा रानी को याद किया और आज बरस रही हैं...नीचे बच्चे खूब भीग भीग के शोर मचा रहे हैं..बादल गरज रहे हैं, और मुझे अपने बचपनकी बारिश, बचपन का आँगन, और बचपन का घर इस शिद्दत के साथ याद आ रहा है...

और बागवानी की वो शाम भी..पिछले जून माह की..... जब मेरी बिटिया साथ थी...और मैंने बागवानी शुरू कर दी थी...
आज वही बिटिया, तन और मन से दूर है...मेरे मनसे नही..लेकिन मै उसके मनसे...अभी,अभी, खिड़कियाँ बंद करके लौटी और लिखने लग गयी....
उस शाम की तरह, मेरी बिटिया रानी, तुझे आजभी दुआएँ देती हूँ...और देते,देते, आँखे भी भी पोंछ लेती हूँ...!

कैसा अजीब मौसम होता है ये...कभी तो बिटिया याद दिला देता है...कभी माँ, और माँ का घर, वो दादा, वो दादी...!...कभी बच्चों का बचपन तो कभी अपना बचपन....! और बचपनका आँगन !
एक आँख से रुलाता है...एकसे हँसाता है...!
समझ नही पा रही, कि, ये बातें, "बागवानी " इस ब्लॉग पे पोस्ट करूँ, या "संस्मरणों"मे....!

"माँ, प्यारी माँ", ये संस्मरण तो जारी है..." बागवानी" की याद , यहाँ, पोस्ट करनेसे खुदको रोक नही पाई...

Thursday, June 4, 2009

आओ ना, बरखा रानी...!

बोहोत दिनों के बाद इस ब्लॉग पे लिखने बैठी हूँ...दर असल, रुकी थी, कि, बगीचेकी चंद तस्वीरें, लेखके साथ, साथ लगा दूँ, और slides भी...लेकिन ये किसी न किसी कारण हो न पाया...

सर्दियों में खिलने वाले फूल ख़त्म हो गए,तो उन गमलों की मिट्टी मैंने पूरी गर्मीभर सुखा ली। कुछ रोज़ पूर्व, जो बड़े गमलें हैं, जिनमे मैंने और बिटियाने बेलें लगाईं थीं, उसमे गोबर का खाद मिलाके पलट दी....उन पौधों में मानो एक नयी जान आ गयी !

"बागवानी की एक शाम", इस लेखको जब पोस्ट किया तब, एक चम्पे की दाल लगाई थी...उसपे पहली बार फूल भी खिले हैं...उसकी भी तस्वीर डालना चाह रही थी...

अब फिर एक बार बौछारों के लिए रुकी हूँ...फिर एकबार छोटे गमले, नयी मिट्टी के इंतज़ार में हैं...!
उसी आलेख में मैंने लिखा था," हो सकता है, इससेभी बड़ा कोई सदमा मेरी इंतज़ार में हो.."और सच में उससे भी भयंकर एक सदमा मुझपे आ पडा...लेकिन बहारें, आती जाती रहीँ....हाँ, येभी एक सत्य है,कि, जब, जब मै, सदमों से गुज़री, चंद पौधों ने या तो दम तोड़ दिया, या वोभी मेरे साथ, साथ, सदमों से गुज़रे...!

जब मानसिक कष्ट झेल रही थी,तो, तस्वीरें खींचने के लिए किसे कहती? मनही नही होता..ना उस वक़्त तस्वीरें एहमियत रखतीं...वरना, वाकई, आँखों देखा हाल, कहते हैं जिसे, अपने पाठकों को उससे वाबस्ता कराती ....कि मेरे साथ मेरा ये "परिवार" भी खामोशी से दर्द झेलता रहा...और जिन्हें ये दर्द मंज़ूर ना हुआ, बरदाश्त ना हुआ, वो मुझे छोड़, चल बसे...

मै अपने पाठकों से आग्रह करूँगी, कि, बागवानी को लिखे गर, जिसे जो सवाल, हो मुझसे ज़रूर पूछें, मै हल निकालने की कोशिश ज़रूर करूँगी....हर जगह की मिट्टी और मौसम के अनुसार हल भी अलग, अलग ही होंगे...सबसे ज़रूरी बात ये होती है,कि, पौधों को रोज़ एक निगाह की ज़रूरत होती ही होती है...

सिर्फ़ पानी मिल रहा है या नही, इतनाही देखना काफी नही... ...बल्कि, कहीँ ज्यादा पानी तो नही पड़ रहा ये देखना भी ज़रूरी होता है...जिन्हें कम पानी चाहिए, ऐसे गमलों को अलगसे रखा जाना चाहिए....वरना उनपे फूलों के बदले पत्तेही निकलते रहेंगे!! या जो पौधे "succulent" इस वर्ग में आते हैं, उन्हें भी दिनमे दो बार पानी नही चाहिए...मेरा बगीचा छत पे है, तथा, बोन्साय के काफी पौधे हैं, जिन्हें, गमला छोटा होने के कारण दिन में दो बार पानी आवश्यक होता है...

कई पौधों की जड़ें, गमले के, नीचे,अतिरिक्त पानी निकल जानेके लिए जो छिद्र होते हैं, उनमेसे,बाहर निकल आती हैं...ऐसेमे गर तपी हुई छत से उनका संपर्क आता है, तो पौधे को हानी हो सकती है। इसपे एक आसान उपाय मैंने पाया...मिट्टी के बने, गोल आकार के थाली नुमा गमले/बर्तन मिलते हैं...उन्हें उलटा करके मै हर ऐसे गमलेके नीचे टिका देती हूँ....उपरसे हरी नेट अप्रैल तथा मई के महीनों में ज़रूरी होती है....जून के माह में पहली बौछार पड़ते ही नेट को निकाल तह बना रख लेती हूँ....गर फट गयी हो, तो रखने से पूर्व, अपनी सिलाई की मशीन छत पे निकाल सी लेती हूँ...और फिर धोके, रखवा लेती हूँ...

अब और क्या लिखूँ? "बरखा रानी ! आओ ना, आ जाओना, इतना भी तरसाओ ना, ...के इंतज़ार है एक 'शम्म' को तुम्हारा...के इंतज़ार है, इस कुदरत के हर पौधे, हर बूटेको, तुम्हारा... के तुमबिन सरजन हार कौन है इनका?के तुमबिन पालन हार कौन है इनका?"

Friday, March 27, 2009

एक दोपहर...बागवानीकी.......

पिछले वर्ष मैंने" बागवानी की एक शाम" ये छोटी-सी यादगार लिखी थी...उस बातको तकरीबन १० माह हो गए।
अब "बागवानी" ये नया ब्लॉग बना लिया।

आज नेट पे बैठी तो चंद ही रोज़ पहलेकी एक दोपहर याद आ गयी....पिछ्ला बसंत बिना किसी बागवानीके बीत गया था...और येभी बीत जा रहा था...पिछले साल बरसात शुरू हुई तब अपने बगीचेकी और नज़र पडी और मै होशमे आ गयी कि मेरे पौधों को मेरी निहायत ज़रूरत है...बेचारे बेज़ुबाँ कुछ कह नही सकते, मुझे आवाज़ नही देते....लेकिन, ज़ाहिर कर रहे थे, मूक खड़े, खड़े कि, उनकी सेहेत बिगड़ती जा रही है...उन्हें ज़रूरत है एक प्यारभरी निगरानी की...निगेह्बानीकी...

उस शाम,पिछले वर्ष, मेरी बिटिया मेरे साथ थी...कुछ अरसे बाद लौट गयी थी..अपने घर.......कुछ नए पौधे उसके साथ उस शामको लगानेकी शुरुआत की थी..

थी तो उस दोपेहेरकोभी..... लेकिन दोबारा आके बस २/३ दिनों में अपने घर लौट जानेवाली थी....मै मनही मन उदास थी...चाहे वो अपने घर राज़ी खुशी लौट रही थी, पर मुझसे जा तो बोहोत दूर रही थी....परदेस....जो मेरे पोहोंचके बाहर था...है...

वो मेरेही कमरेमे सो रही थी और मै बाहर निकल आयी....छज्जेपे हमारी बैठक सेही एक नज़र दौडाई....परिन्दोंकी आवाजें सुनाई दे रही थीं....बजे तो दोपेहेरके ४ ही थे...उनके बर्तन में पानी तो ६ बजेके करीब पड़ता था, लेकिन इन्तेज़ारमे थे। दरवाज़े के ठीक सामनेवाले कठरेपे पँछी बैठे हुए दिखे...क़तारमे....जैसेही मैंने दरवाजा खोला, उडके उस मिट्टीके बर्तन के पास चले गए, जिसमे मै उनके लिए पानी रखा करती हूँ....ओह!!समझी....!!गरमी के कारन पानी तप गया होगा...हर गरमीके मौसम में ये परिंदे ऐसाही तो करते हैं...मैही भूल जाती हूँ...

मैंने वो बर्तन उठाया और छज्जेपे लगा नलका खोला...उफ़! उसमेसे तपा हुआ पानी आ रहा था...! मै रसोईमे गयी और वहाँसे बोतल लेके लौटी। पानी ठंडा था...मैंने बर्तन में उँडेल दिया....और थोड़ा परे हट गयी....बारी, बारी कितनेही परिंदे आते रहे...मैना, फाखते, बुलबुल, कबूतर, कौव्वे, sunbirds, औरभी कई...हाँ...गोरैय्या को मुद्दतें हो गयी हैं देखे हुए..उनकी तो जाती ही नष्ट होते जा रही है...और वजह है हमारा बेहिसाब कीटक नाशक का छिडकाव....मै नही डालती लेकिन अतराफमे हर दूसरा डालताही है...

पिछले सालसे इस सालतक मैंने गौर किया कि इतनी तरह ,तरहकी बीमारियाँ, जो मेरे पौधोंपे लगीं, मैंने ज़िन्दगीमे कभी नही देखी थी....पिछले साल मै पहली बार मिट्टी खरीद्के लाई थी....तबतक मिट्टी मैही बनाती थी...किसी खेतसे लाल मिट्टी ले आती, गोबरका खाद और ईटोंका चुरा मिलाके मिट्टी खुदही बनाती....वो जो मिट्टी लाई, उसके साथ ना जानूँ, कितनीही बीमारियाँ मेरे पौधों में लग गयीं...एक माह के अन्दर मुझे तकरीबन १५० पौधों की मिट्टी ३ बार बदल देनी पडी...अंतमे जो मिट्टी मै खरीदके लाई, उसे पहले मैंने एक बड़े बर्तन मे तपा लिया और फिर इस्तेमाल किया...पूरी रात मै मशागत में लगी रही थे...सुबह होते, होते, थकके लेट गयी थी!!

जडोंमे लगे कीडों के लिए मैंने हर गमलेमे गेंदेके बीज डाले...एक ख़ास किस्मका कीडा( बाल जैसा बारीक और एकदम छोटा)गेंदेकी गंधसे दूर रहता है। कितनीही हिकमतें कीं.... कुछ तो बेहद सुंदर और पुराने बोनसाई के पेड़ मरभी गए, बार बार जड़ें हिल जानेके कारण...अफ़सोस हुआ बोहोत, पर क्या कर सकती थी??एक ज़माना था, जब मै तम्बाकू के पौधे पानीमे उबालके/या भिगोके, उसका पौधों पे छिडकाव करती थी। यहाँ कहाँसे लाऊँ? फिरभी तलाशमे लगी हूँ...

उस दिनपे लौट चलती हूँ....उस रोज़, कितने अरसे बाद मुझे परिन्दोंकी आवाजें अच्छी लगीं....उन्हें तो जैसे मै सुननाही भूल गयी थी...जैसे अपने पौधोंकी पुकार मुझे सुनाई नही दे रही थी...और सिर्फ़ पौधे नही, उनकी दास्ताँ तो परिंदे मुझे सुनाया करते थे...!इनके गीत सुनना क्यों छोड़ दिया मैंने?के इनकी रहनुमाई भी मै भूल गयी...?हाँ, रहनुमाई....जो ये परिंदे हमेशा किया करते थे....उसी बारेमे लिखने जा रही हूँ...और रहनुमाई तो इन परिंदों ने ढेर सारी बातों में की है...किन, किन बातोंको याद कर दोहराऊँ??मुझे तो पता नही कितनी सदियाँ पीछे जाना होगा??

मै हमेशा, एक दूरीसे अपने पौधोंको चुपकेसे निहारती...जिन, जिन पौधोंपे परिंदे बैठते, मै बादमे उन सबके पास जाती और उन गमलोंको, उनमे बढ़ रहे पौधोंके फूल और पत्तियोंको, खूब गौरसे देखा करती....उनपे हमेशा मुझे किडोंका और बीमारीका अस्तित्व नज़र आता...मै उन पौधों के पत्ते हटा देती( अब भी वही करती हूँ)। गुडाई करके देखती कि , मिट्टी तो ठीक है...उनकी जगह बदल देती...गमलोंके नीचे गर पानी नही सूखता तोभी बीमारी आही जाती है...जड़ें सड़ने लगती हैं...

उस दोपहर मैंने यही सब शुरू कर दिया। एक बात जान गयी हूँ...गर मै अपने बगीचेसे ३ दिन दूर रहती हूँ, तो दस दिनोंका काम इकट्ठा हो जाता है...बीमारी, दिन दूनी, रात चौगुनी प्रगती करती है।
देखा तो चंद दिनों पहले, अपनी पूरी बहारपे लदी रातकी रानी, ९० प्रतिशतसे अधिक, मीली बग से भर गयी थी....उसे तकरीबन जड़ों तक मुझे छाँट देना पडा.....फिलहाल तो शुक्र है कि उसकी जान तो बच गयी है....

बागवानी करते समय, मै हरबार प्लास्टिक की थैलियाँ अपने साथ रखती हूँ( वैसे प्लास्टिक से मुझे चिढ है...)....और छाँटी हुई टहनियाँ, पत्ते आदि सब उसमे बंद कर लेती हूँ...तभी कूडेदान में फेंकती हूँ। उस बेल को इस तरह से छाँटते हुए बड़ा दुःख हुआ...कुछही रोज़ तो हुए थे अभी, जब इसके सुगंधने पूरा छज्जा महकाया था....जनवरी या फरवरी??मैंने कबसे इस बेल को नज़रंदाज़ कर दिया था??इतने दिन हो गए??

उस दोपेहेरको जो मै अपनी बगीचेमे लगी तो रातके १० बजेतक लागीही रही....सिर्फ़ एकबार अन्दर जाके अपने लिए लस्सी ले आयी। और अपने पौधों से वादा करके ही अन्दर गयी , अबकी बार मुझे माफ़ कर दें...फिर ऐसी गलती, जान बूझके तो नहीही करूँगी....

बिटिया तो चली गयी...फिर एकबार उसने अपनी धरोहर मुझे सौंप दी है....अभी कुछ रोज़ पूर्व ही मुम्बईसे लौटते समय, महामार्ग पे एक नर्सरी दिखी थी...जहाँसे ना, ना करतेभी बेटीने एक पौधा लेही लिया था....शायद ये पौधे ही एक यादोंका सागर बन लहरायेंगे.....वो तो और दूर, और दूर, जिसमानी तौरसे जातीही रहेगी.....एक माँ उसके लिए तरसतीही रहेगी...तरसतेही रहेगी ...ये ममताकी ऐसी अनबुझ प्यास है की जनम जन्मान्तर तक बुझेगी नही....
शमा।

Friday, March 6, 2009

बागवानी की एक शाम.......

Thursday, June 5, 2008

बागवानी की एक शाम....

बड़े मुश्किल दौरसे गुज़र रही हूँ। चाहकेभी लिखनेकी शक्ति या इच्छा नही जुटा पा रही थी। कई विचार मन मे उथल पुथल मचाते जिन्हें शब्दंकित करना चाहती पर टाल देती।
परसों शाम मानसून पूर्व बौछार हाज़री लगा गयी । मेरी बेटी,जो अमेरिकासे आई हुई है,मुझसे काफ़ी बार कह चुकी थी कि मैं अपने टेरेस गार्डन मे कुछ बेलें लगाऊँ । वो जाके गमलेभी लेके आई। कुछ पौधों के नाम मैंने ही उसे लिख दिए थे।
वैसे मुझे बागवानी का हमेशा से शौक रहा है। कुछ सालों से परिवार कुछ इसतरह बिखरा कि, मेरे कई शौक मन मसोस के रह गए। लगता,किसके लिए खाना बनाऊँ ?किसके लिए फूल सजाऊँ?किसके लिए मेरे घरका सिंगार करूँ?किसके लिए अपनी बगिया निखारुं?
कई सारे बोनसाई के पौधे, जिन्होंने कई पारितोषिक जीते थे, मेरी इन्तेज़ारमे थे। मैं थी कि , पास जाके लौट आती। हर वक्त सोचती फिर कभी करुँगी इनकी गुडाई, फिर किसी दिन खाद दूँगी।
हाँ,आदतन, सिर्फ़ एक चीज़ मैं नियमसे ज़रूर करती और वो यह कि घर हमेशा बेहद साफ सुथरा रखती। परदे धोना, नए परदे लगना, हाथसे सिली, टुकड़े जोडके बनाई हुई चद्दरे बिछाना, दरियाँ धोके फैलाना, घरका कोना,कोना इस तरहसे सजाना मानो किसीके इन्तेज़ारमे नव वधु सजी सँवरी बैठी हो......अंदरसे उत्साह ना होते हुएभी....
पर ना अपनी कलाकी प्रति मन आकर्षित होता ना लेखनके प्रति। कुछ करनेका उत्साह आता तो वो देर शामको....वरना सुबह ऐसी घनी उदासी का आलम लिए आती कि लगता ये क्यों आयी ??अपने घरमे झाँकती किरने मुझे ऐसी लगती जैसे अँधेरा लेके आई हो।
परसों दोपहर जब बूँदें बरसने लगी, तो मैं खिड़कियाँ बंद करने दौड़ी। अचानक मेरा ध्यान उन खाली गमलोंकी ओर गया। यही वक्त है इनमे मिटटी डालनेका, पौधे लगानेका!!मैं दौडके पडोसमे गई, वहाँसे एक चम्पेकी ड़ाल ले आई। बस शुरुआत हो गई। भाईके घरसे गुलाबी चम्पेकी दो और डालें ले आई। गमले भरे गए। उनमे पानी डाला और चम्पेकी डाले लगा दी।
दूसरे दिन बिटिया कुछ और गमले और बेलोंके पौधे ले आई। कल और आज शाम को मेरी बागवानी जारी रही। सब हो जानेके बाद, टेरेस को खूब अच्छी तरहसे धो डाला। मुद्दतों बाद लगा कि मैंने अपने जीवनसे हटके किसी और ज़िंदगी की तरफ़ गौर किया हो.......
इन पौधोंको अब नई पत्तियाँ फूट पड़ेंगी। ड़ाले जड़े पकड़ लेंगीं । एक नई ज़िंदगी इनमे बसने आएगी, जिसे मैं रोज़ बढ़ते हुए देखूँगी, जैसे कि पहले देखा करती थी। अपने पुराने पौधोंकी मिटटी बदल डालूँगी....उनमेभी एक नए जीवनका संचार होगा...बेलोंको चढाने की तरकीबें सोचते हुए शाम गहरा गई।
ऐसा नही कि ,सुबह्की उदासी ख़त्म हुई,पर शाम की खुशनुमा याद लेके सुबह ज़रूर आएगी,ये विश्वास मनमे आ गया। येभी नही कि मेरी परेशानियाँ सुलझ गई। लेकिन लगा कि शायद ये दौरभी गुज़रही जायेगा। हो सकता है,जैसे कि पहलेभी हुआ था, कोई औरभी ज़्यादा मुश्किल दौर मेरे इन्तेज़ारमे हो। पर उसके बारेमे सोच के मनही मन डरते रहना ये कोई विकल्प तो नही, दिमागमे ये बातभी कौंध गई।
कलको बिटिया लौट जायेगी अपने घर, बरसात का मौसम बीत जाएगा, पर जब इन पौधोंको देखूँगी तो उसकी याद आँखें नम कर जायेगी। बिटिया,तुझे लाख, लाख दुआएँ!!

3 टिप्पणियाँ:

छत्तीसगढिया .. Sanjeeva Tiwari said...

पर्यावरण दिवस के शुभ अवसर पर आपकी भावनायें सुखद लगीं । धन्यवाद ।

Udan Tashtari said...

भावुक कर दिया आपने.

निश्चित ही कल सुनहरा होगा-आँखे नम तो याद से होना माँ का स्वभाव है किन्तु यही नव सृजन आपके चेहरे पर मुस्कराहट भी लायेंगे और बहुत सुकुन भी पहुँचायेंगे.

शुभकामनाऐं.

बाल किशन said...

सच सीधे शब्दों मे लिखी आपकी ये पोस्ट दिल को छू गई.
और बहुत ही सम सामायिक भी बनी है.
बधाई.


kumar Dheeraj has left a new comment on your post "बागवानी":

भावपूणॆ लेखन । आपने बागबानी से दिल के उस लम्हे को याद कर दिया जो मेरे जीवन की एक त्रासदी है । खैर मनुष्य के जीवन में कुछ ऐसी घटनाए हो जाती है जो जीवन भर सालता रहता है । आपने वहुत सुन्दर टिप्पणी लिखी । शुक्रिया


Wednesday, March 4, 2009

बोनसाई..एक अलग "वृक्ष" !

मेरेही घरमे ....... एक saw मिल से मिले लकडी के बूंधे पे रखा गमला...!

बोनसाई : एक अलग पेड़. २


कुछ अपने बनाये "बोनसाई "की तस्वीरें पोस्ट कर रही हूँ...आशा है आपको पसंद आयेंगी !