पिछले वर्ष मैंने" बागवानी की एक शाम" ये छोटी-सी यादगार लिखी थी...उस बातको तकरीबन १० माह हो गए।
अब "बागवानी" ये नया ब्लॉग बना लिया।
आज नेट पे बैठी तो चंद ही रोज़ पहलेकी एक दोपहर याद आ गयी....पिछ्ला बसंत बिना किसी बागवानीके बीत गया था...और येभी बीत जा रहा था...पिछले साल बरसात शुरू हुई तब अपने बगीचेकी और नज़र पडी और मै होशमे आ गयी कि मेरे पौधों को मेरी निहायत ज़रूरत है...बेचारे बेज़ुबाँ कुछ कह नही सकते, मुझे आवाज़ नही देते....लेकिन, ज़ाहिर कर रहे थे, मूक खड़े, खड़े कि, उनकी सेहेत बिगड़ती जा रही है...उन्हें ज़रूरत है एक प्यारभरी निगरानी की...निगेह्बानीकी...
उस शाम,पिछले वर्ष, मेरी बिटिया मेरे साथ थी...कुछ अरसे बाद लौट गयी थी..अपने घर.......कुछ नए पौधे उसके साथ उस शामको लगानेकी शुरुआत की थी..
थी तो उस दोपेहेरकोभी..... लेकिन दोबारा आके बस २/३ दिनों में अपने घर लौट जानेवाली थी....मै मनही मन उदास थी...चाहे वो अपने घर राज़ी खुशी लौट रही थी, पर मुझसे जा तो बोहोत दूर रही थी....परदेस....जो मेरे पोहोंचके बाहर था...है...
वो मेरेही कमरेमे सो रही थी और मै बाहर निकल आयी....छज्जेपे हमारी बैठक सेही एक नज़र दौडाई....परिन्दोंकी आवाजें सुनाई दे रही थीं....बजे तो दोपेहेरके ४ ही थे...उनके बर्तन में पानी तो ६ बजेके करीब पड़ता था, लेकिन इन्तेज़ारमे थे। दरवाज़े के ठीक सामनेवाले कठरेपे पँछी बैठे हुए दिखे...क़तारमे....जैसेही मैंने दरवाजा खोला, उडके उस मिट्टीके बर्तन के पास चले गए, जिसमे मै उनके लिए पानी रखा करती हूँ....ओह!!समझी....!!गरमी के कारन पानी तप गया होगा...हर गरमीके मौसम में ये परिंदे ऐसाही तो करते हैं...मैही भूल जाती हूँ...
मैंने वो बर्तन उठाया और छज्जेपे लगा नलका खोला...उफ़! उसमेसे तपा हुआ पानी आ रहा था...! मै रसोईमे गयी और वहाँसे बोतल लेके लौटी। पानी ठंडा था...मैंने बर्तन में उँडेल दिया....और थोड़ा परे हट गयी....बारी, बारी कितनेही परिंदे आते रहे...मैना, फाखते, बुलबुल, कबूतर, कौव्वे, sunbirds, औरभी कई...हाँ...गोरैय्या को मुद्दतें हो गयी हैं देखे हुए..उनकी तो जाती ही नष्ट होते जा रही है...और वजह है हमारा बेहिसाब कीटक नाशक का छिडकाव....मै नही डालती लेकिन अतराफमे हर दूसरा डालताही है...
पिछले सालसे इस सालतक मैंने गौर किया कि इतनी तरह ,तरहकी बीमारियाँ, जो मेरे पौधोंपे लगीं, मैंने ज़िन्दगीमे कभी नही देखी थी....पिछले साल मै पहली बार मिट्टी खरीद्के लाई थी....तबतक मिट्टी मैही बनाती थी...किसी खेतसे लाल मिट्टी ले आती, गोबरका खाद और ईटोंका चुरा मिलाके मिट्टी खुदही बनाती....वो जो मिट्टी लाई, उसके साथ ना जानूँ, कितनीही बीमारियाँ मेरे पौधों में लग गयीं...एक माह के अन्दर मुझे तकरीबन १५० पौधों की मिट्टी ३ बार बदल देनी पडी...अंतमे जो मिट्टी मै खरीदके लाई, उसे पहले मैंने एक बड़े बर्तन मे तपा लिया और फिर इस्तेमाल किया...पूरी रात मै मशागत में लगी रही थे...सुबह होते, होते, थकके लेट गयी थी!!
जडोंमे लगे कीडों के लिए मैंने हर गमलेमे गेंदेके बीज डाले...एक ख़ास किस्मका कीडा( बाल जैसा बारीक और एकदम छोटा)गेंदेकी गंधसे दूर रहता है। कितनीही हिकमतें कीं.... कुछ तो बेहद सुंदर और पुराने बोनसाई के पेड़ मरभी गए, बार बार जड़ें हिल जानेके कारण...अफ़सोस हुआ बोहोत, पर क्या कर सकती थी??एक ज़माना था, जब मै तम्बाकू के पौधे पानीमे उबालके/या भिगोके, उसका पौधों पे छिडकाव करती थी। यहाँ कहाँसे लाऊँ? फिरभी तलाशमे लगी हूँ...
उस दिनपे लौट चलती हूँ....उस रोज़, कितने अरसे बाद मुझे परिन्दोंकी आवाजें अच्छी लगीं....उन्हें तो जैसे मै सुननाही भूल गयी थी...जैसे अपने पौधोंकी पुकार मुझे सुनाई नही दे रही थी...और सिर्फ़ पौधे नही, उनकी दास्ताँ तो परिंदे मुझे सुनाया करते थे...!इनके गीत सुनना क्यों छोड़ दिया मैंने?के इनकी रहनुमाई भी मै भूल गयी...?हाँ, रहनुमाई....जो ये परिंदे हमेशा किया करते थे....उसी बारेमे लिखने जा रही हूँ...और रहनुमाई तो इन परिंदों ने ढेर सारी बातों में की है...किन, किन बातोंको याद कर दोहराऊँ??मुझे तो पता नही कितनी सदियाँ पीछे जाना होगा??
मै हमेशा, एक दूरीसे अपने पौधोंको चुपकेसे निहारती...जिन, जिन पौधोंपे परिंदे बैठते, मै बादमे उन सबके पास जाती और उन गमलोंको, उनमे बढ़ रहे पौधोंके फूल और पत्तियोंको, खूब गौरसे देखा करती....उनपे हमेशा मुझे किडोंका और बीमारीका अस्तित्व नज़र आता...मै उन पौधों के पत्ते हटा देती( अब भी वही करती हूँ)। गुडाई करके देखती कि , मिट्टी तो ठीक है...उनकी जगह बदल देती...गमलोंके नीचे गर पानी नही सूखता तोभी बीमारी आही जाती है...जड़ें सड़ने लगती हैं...
उस दोपहर मैंने यही सब शुरू कर दिया। एक बात जान गयी हूँ...गर मै अपने बगीचेसे ३ दिन दूर रहती हूँ, तो दस दिनोंका काम इकट्ठा हो जाता है...बीमारी, दिन दूनी, रात चौगुनी प्रगती करती है।
देखा तो चंद दिनों पहले, अपनी पूरी बहारपे लदी रातकी रानी, ९० प्रतिशतसे अधिक, मीली बग से भर गयी थी....उसे तकरीबन जड़ों तक मुझे छाँट देना पडा.....फिलहाल तो शुक्र है कि उसकी जान तो बच गयी है....
बागवानी करते समय, मै हरबार प्लास्टिक की थैलियाँ अपने साथ रखती हूँ( वैसे प्लास्टिक से मुझे चिढ है...)....और छाँटी हुई टहनियाँ, पत्ते आदि सब उसमे बंद कर लेती हूँ...तभी कूडेदान में फेंकती हूँ। उस बेल को इस तरह से छाँटते हुए बड़ा दुःख हुआ...कुछही रोज़ तो हुए थे अभी, जब इसके सुगंधने पूरा छज्जा महकाया था....जनवरी या फरवरी??मैंने कबसे इस बेल को नज़रंदाज़ कर दिया था??इतने दिन हो गए??
उस दोपेहेरको जो मै अपनी बगीचेमे लगी तो रातके १० बजेतक लागीही रही....सिर्फ़ एकबार अन्दर जाके अपने लिए लस्सी ले आयी। और अपने पौधों से वादा करके ही अन्दर गयी , अबकी बार मुझे माफ़ कर दें...फिर ऐसी गलती, जान बूझके तो नहीही करूँगी....
बिटिया तो चली गयी...फिर एकबार उसने अपनी धरोहर मुझे सौंप दी है....अभी कुछ रोज़ पूर्व ही मुम्बईसे लौटते समय, महामार्ग पे एक नर्सरी दिखी थी...जहाँसे ना, ना करतेभी बेटीने एक पौधा लेही लिया था....शायद ये पौधे ही एक यादोंका सागर बन लहरायेंगे.....वो तो और दूर, और दूर, जिसमानी तौरसे जातीही रहेगी.....एक माँ उसके लिए तरसतीही रहेगी...तरसतेही रहेगी ...ये ममताकी ऐसी अनबुझ प्यास है की जनम जन्मान्तर तक बुझेगी नही....
शमा।
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dost bahut sundar likha hai...likhte raho...or haan mere blog par aapka swagat hai....
ReplyDeleteJai HO Mangalmay HO
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ReplyDeleteJILAYE RAKHNA USE VO NAHEEN HAI BAS PAUDHA.
ReplyDeleteUSME SHAMIL HAI BADEE KHUSHBUYEN UMMEEDON KEE.
बागवानी नहीं
ReplyDeleteभाववाणी है यह
भावों को लिखा है
इतना गहरा आपने
ज्यों जड़ हों पौधों की
वृक्षों की, अमृत पुष्पों की
अच्छा लिखा है आपने
सच्चा लिखा है आपने।
शमाजी आपकी बागवानी का मजा लिया बहुत सुन्दर लगा उसमें आपके भावः भी महसूस हुए इसी तरह मन प्रसन्न करती रहें धन्यवाद
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